Sunday, June 10, 2012

प्रकृति !


       प्रकृति !

जिस दिन तुम्हारे पति परमेश्वर
तुम्हारी ना मानकर
अपनी चलायें जाएँ
बेकदरी से पेश आयें
सब्जी लाने की एवज में
तुम पर अधिकार जमाएं
तुम ना मानो तो एक दो बार
कान पे तड़का भी लगाएं
ज़बरदस्ती रोंदकर तुम्हे
मुंह फेर सो जाएँ
उस दिन तुम हे प्रकृति
उन वीर्यकडों को सहेजकर
मत रख लेना
क्या फायदा – एक और
बलात्कारी पैदा करने से !

[ 24/12/93 को मेरी डायरी में लिखी गयी ]

अगस्त्य 

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