Thursday, June 21, 2012

गिडगिडआहट !


Sunday, June 17, 2012

About me !

About me
Lotus; a flower,
said to grow in dirty waters,
is but blissfull to the eye.

No one knows,Perhaps,
that spirits n springs of joy,
are its nutrition,
and its roots lie elsewhere,
in the dreams for pastures of green;.
of the beholders eyes,

God has blessed the lotus,
to seek its nutrition and its growth,
from that dreamer and the deliverer of
beauty whose eyes want to see beauty in all alike..

Thursday, June 14, 2012

कबीरा भाया सयाना !


कबीरा भाया सयाना मांगे गली गली उधार ,
बनिये उससे चातरे ना खोले कोई द्वार !
अगस्त्य 

Sunday, June 10, 2012

प्रकृति !


       प्रकृति !

जिस दिन तुम्हारे पति परमेश्वर
तुम्हारी ना मानकर
अपनी चलायें जाएँ
बेकदरी से पेश आयें
सब्जी लाने की एवज में
तुम पर अधिकार जमाएं
तुम ना मानो तो एक दो बार
कान पे तड़का भी लगाएं
ज़बरदस्ती रोंदकर तुम्हे
मुंह फेर सो जाएँ
उस दिन तुम हे प्रकृति
उन वीर्यकडों को सहेजकर
मत रख लेना
क्या फायदा – एक और
बलात्कारी पैदा करने से !

[ 24/12/93 को मेरी डायरी में लिखी गयी ]

अगस्त्य 

Saturday, June 9, 2012

त्वदीयं वस्तु गोविन्दम – तूभ्ह्य्मेव समर्पया !

कितनी मंज़िलें मेरे आस पास होती,
ये बेवकूफ धरती ग़र घूमती न होती,
अक्ल मेँ भूसा भरा वो आदमी है कीमती,
वरना जुगाली करने को बुध्ही हमेशा रोती,
गन्दे मैले कागज़ों को थूक लगा के गिनता,
नोटोँ की गड्डी फिर भी कभी रद्दी नहीं होती,
हर मज़हब का हर देवता मेरे काम तो आया मग़र,
आजकल उतनी यँहा चढ़ोत्तरी नहीं होती,
घास चरते रहने का अपना अलग ही आनन्द है,
हम गधों की रेस में कभी जूताई नहीं होती,
मालिक ने मेरे माथे पे ये क्या लिख के भेजा,
इस भाषा की कहीं कोई पढ़ाई नहीं होती,
जी चाहता है हम भी करें दान पुण्य ऐ दोस्त,
काश मेरे दिल ने भी कूछ कमाई की होती !


त्वदीयं वस्तु गोविन्दम – तूभ्ह्य्मेव समर्पया !

तेरी नदिया - तेरी कश्ती - तू मांझी - तू ही सवार
लहरे तेरी भंवर भी तू – तू ही किनारा तू मंझधार
नाले तेरे - सीवर भी तू – तू ही नगर निगम प्रदेश सरकार
नेता तेरे - मंत्री तेरे – तू ही दलाल तू ही भ्रष्टाचार
जंगल तेरे - पेड़ भी तू – तू डाल पात और घास पतवार
लकड़हारा तू - आरा भी तू – तू ही सीसम सागोन का कारोबार
आना तू - पाई भी तू – तू ही रूपया डालर और दिनार
मालिक भी तू सेवक भी तू – तू खुद को खुद बाटे है पगार
बुद्धि तू - बुद्धि में तू – बुद्धि से उपजा तू निराकार
कंही बुद्ध कंही जीसस है तू कंही हिटलर कंही नादिरशाह की तलवार
तू दाल और रोटी - नान परांठे - तू किस्म किस्म का मांसाहार
कंही भूख से तू मर जाता है - कंही लंबी लेता है तू डकार
पेरिस तू - न्यूयार्क भी तू – तू ही कालाहांडी और बिहार
हिरोशिमा नागासाकी तू – तू ही काबूल और तू ही कंधार
तू रिक्शा खींचे - रेहड़ी लगाये - तू ठुल्लों से खाए फटकार
नेता तू - अफसर भी तू – तू ही साहेब खूब करे व्यापार
कण कण में जब तू ही तू – तो मैं भी तू और तू मैं यार
ये कलम भी तू - कागज़ भी तू – खुद को खुद लिखता नानाप्रकार !


Friday, June 8, 2012

प्रशाद !


                                   प्रशाद !
गाँव में इक गरीब सा मंदिर था , जन्हा गरीब गुरबे लोग अपने आपको मानसिक तोर पर तसल्ली देने आ जाया करते थे ! चार छह घर पैसे वालों के भी थे – पर उनका अपना – अपना अलग मंदिर था – अलग भगवान था – घर में ही , और वास्तव में उन घरों में मंदिर इसलिए बने थे की उनकी बहूऐ – बेटियाँ कंही मंदिर जाने के नाम पर अपने - - - ही में मूर्ती स्थापित करवा के ना आ जाएँ !
            उस गरीब से मंदिर का इक नोजवान पुजारी था , और - - - - उसकी एक खूबसूरत बीवी भी थी --- पुजारिन थी ! पुजारी शोकिया तौर पर पहलवानी करता था , सुबह शाम हनुमान की मूर्ती को चमकाता था ---- जय हनुमान ज्ञान गूंन सागर करता था , बाकी की तमाम चार छह हाँथ पैर वाली मूर्तियों कि ज़िम्मेदारी उसकी बीवी की थी – जो की अपनी ज़िम्मेदारी अच्छी तरह समझती थी और निभाती भी थी !
गाँव के अधिकतर पैसे वाले लोग जड़ से नास्तिक थे , और उन्हें ज़रूरत भी क्या थी एक ही चीज़ को बार बार रटने की – पर फिर भी वो कभी कभार उस मंदिर में आ जाया करते थे , पुजारी से मिलने ------ पुजारिन को देखने !
अऊर सब ठीक – ठाक बा ना पुजारी जी ? कऊनो प्राबलम होय तो बताया ! कहते पुजारी से थे --- देखते पुजारिन की तरफ थे ! बाहर आकर आपस में बतियाते थे की --- का हो – पूजारिनियाँ बहुत जोर जोर से सिवलिंग का मींज मींज के नऊहावत रही , का च्च्क्कर बा --- ? ई पूजारिया खाली देखैंइन के पहलवान बा का ?
वो पुजारी – वो पहलवान एक दिन कूँये से पानी खिंच रहा था की ------ वो धन्नी जिस पर रस्सी चलने वाली गडारी लगी होती है --- टूट गयी ----- पुजारी पानी खींचता खींचता कुवें में खीच गया , अंदर पानी तक पहुचने से पहले ही पुजारी का सर कूंवे की पक्की दिवार से टकराकर खुल गया ! जय हनुमान ज्ञान गुन सागर करने वाले का राम नाम सत्य हो गया !
ये खबर मिलते ही की पुजारी मर गया , उस खूबसूरत ---- नोजावान पुजारिन से प्रशाद मिलने की आस में गाँव के तमाम पैसे वाले नास्तिक --- उस के पति के निधन पर दुख व्यक्त करने – खुशी खुशी आये !

[ मेरी डायरी में १९/०९/९३ को लिखी गयी ]

अगस्त्य 

Kamaal Hai Saaheb !


कमाल है साहब !
कमाल है साहब , की भूंख में पेट एंठने लगता है ,
आँखे भाव शून्य हो जाती हैं , और सारी सोच समझ
पूरा दर्शन शास्त्र, अच्छाई - बुराई – ठीक - गलत
मिलकर रसोईं में कुछ ढूडने लगते हैं,
कमाल है साहब की इस आलम में - प्रेमिका की भी याद नहीं आती
और ना ही याद आती हैं - सम्भोग की वो सुखद घडियां,
हर सुंदर मांसल स्त्री का बदन - फूली हूई चपातियों सा लगता है,
शाकाहारी हूँ ना शायद इसीलिए,
वेश्याओं की - खून और गुर्दा बेचने वालों की
चालाकी पर दिल खुश होता है,
भीख मांगते बच्चों के पेट में - हो रही खुजली समझ आती है
और कमाल है साहब की इस आलम में भी
अपने परम मित्र से कुछ पैसे मांगने में
झिझक महसूस होती है – शर्म सी आती है
कमाल है ना साहब ?
[ मेरी डायरी में १७/०१/९५ को लिखी गयी ]
अगस्त्य 

Water in Athrva ved !


आजकल पानी यानी जल यानी वाटर के लिए बहुत मारामारी चल रहेला है – ---
तो भाई अथर्ववेद में लिखा है की
“ आपो ही स्त्ठामयोभूवास्ता न ऊर्वे दधातन महेर्णय च्छसे |
यो वः शिवतामो रस सतस्य भाजयतेह न: उशतीरिव |
तस्मा आरंगमान वो यस्य छ्याय जिन्वय आपो जन्यया च न : “
यानी ---- हे जल आप निश्चय ही सुखकारक हो, बल और प्रान्ड शक्ति से पुष्ट करें ,
जिससे हम बड़े बड़े संग्रामो को देख सकें ,
जिस प्रकार माताएं अपने पुत्रों को दूध पिलाकर पालन पोशंड करती हैं ,
उसी प्रकार हे जल - तुम्हारा जो कल्याणकारी रस है उसका हमें भागी बनाओ ,
हे जल हम उसी जीवन रस को प्राप्त करने के लिए तुम्हारी शरण में आते हैं ,
जिसके धारणआर्थ ही तुम्हारी सत्ता है और जिसके द्वारा तुम हमें उत्पन्न करते हो |
 
अनूभवी अज्ञानी 

Thursday, June 7, 2012

अंधा ! A Blind Men !


                                  अंधा ! A Blind Men !

मैं अपने आपको लेखक समझता हूँ  - ले  - ख – क – और शायद हूँ भी ! अब अपने को मैं मुंशी प्रेमचंद या निराला या रविन्द्र बाउजी के सामने तो दो इंच का महसूस करता हूँ , पर ------- पर एक बात पक्की है की अगर मुझे अंग्रेजी ढंग से आती होती तो ये विक्रम सेठ , शोभा डे , और रुश्दी साहेब पटरी नहीं लगा सकते मेरे शोरूम के आगे !  ------ तो मैं अपनी इक ताज़ा पैदा हूई रचना को लेकर बम्बई के विक्टोरिया टर्मिनल के सामने मोजूद इक प्रतिश्ठित अखबार के महल जेसे दफ्तर में गया , गया ------- और ------ आया ! और वापसी के वक़्त सोच मैं रहा था की मैं इतने विकृत अंदाज़ में क्युओं लिखता हूँ की सम्पादक रोनी सूरत बना लेता है ?
आजकल अखबारों के साथ भी दिक्कत है – राजनीति ---- महाश्ब्द्पटल ---- विज्ञापन और चुटकलों को छापने के बाद जगह ही नहीं बचती – और बचे भी तो वो क्युओं मेरे जेसे सनकी का लेख छापें ? [ वो ये छाप सकते हैं की पूजा बेदी की बिकनी डेढ़ हज़ार में नीलाम हूई , वो डायना की उडती स्कर्ट में से जोहर दिखाती टांगो का चित्र छाप सकते हैं --- “क्या आप झगडालू हैं” ? जेसे लेख छाप सकते हैं ! ] [ नवभारत टाइम्स में आज 02/06/93 की कुछ नाम्किनियाँ ] मेरा लेख क्युओं छापें ? ----- क्या था उसमे ? --- सिर्फ बम्बई में हों रही मासूम बच्चियों के साथ बलत्कार जेसा चालू मसाला ! अब पूजा बेदी की बिकनी और डायना की जांघों के आगे मेरे लेख में क्या रस है ----- ? --- सब साले चोरकट ---- -- -
      भाई साहब आप चर्चगेट जा रहे हैं ? फूटपाथ पर एक आदमी ने मुझे रोकते हूए पूछां , मैं भी उससे मुखातिब होकर बोला – जी हाँ ! क्युओं ? – इन भाईसाहब को ----- उसने बाजू में खड़े एक काला चश्मा पहने हीरो की तरफ इशारा करके कहा --- भी स्टेशन तक छोड़ देना ! तब मुझे एअह्सास हू़आ की वो चश्मा उसने किसी हेरोपंती की वजह से नहीं – अंधा होने की वजह से पहना है ! मैं मन ही मन अंग्रेजों की तरह गिल्टी फीला --- और उस अंधे का हाँथ थामा और चल दिया !
                          अब वो अंधा जितना धीरे चल सकता था ---- चल रहा था --- और कह रहा था --- बड़ी दिक्कत होती है मेरे को बिना डंडी के ! मेने सुनकर आदतन सर हिलाया – और हिलाते ही ख्याल आया की वो मेरा सर हिलाना केसे देखेगा ---- मैं फ़ौरन बोला – हाँ – ज़रूर – ज़रूर दिक्कत होती होगी भाई साहब ! कितनी बार तो गिर चुका हूँ मैं – वो फिर बोला , मैं चुप रहा – क्युऊंकी गिरा तो मैं भी हूँ कई बार --- दिखने के बावजूद ! कोई डंडी दिला दे तो परेशानी कम हों जाए ---- वो मेरे साथ रेंगता रेंगता फिर बोला – मैं फिर चुप रहा --- और वो बोले गया !
         मैं अब सोचने लगा की केसे आदमी अपने खराब हालात को भी चंद गिने चूने भावुक लोगों से ज़ल्दी से ज़ल्दी केश करने के चक्कर में लगा रहता है --- अब वो अंधा बिना ये देखे की में उस से भी ज़्यादा फक्कड आदमी था – मुझे डंडी की दास्ताँ सुनाकर पांच दस झटकने के चक्कर में था , काश उसे मालूम होता की बातोर लेखक ये धक्के खाने वाला आदमी उसे सहारा देने को डंडी तो क्या --- दांत खुरचने को इक तीली तक दिलवाने में असमर्थ था !
अब पता नहीं केसे उस अंधे ने एकदम से मेरे हालातों को देख लिया , ------------ अच्छा भाईसाहब आप जाओ ---  वो इकदम से हाँथ छुडाकर बोला ! – क्यओं --- चर्चगेट नहीं जाओगे ? – मेने हेरान होकर उससे पूंछा ! – नहीं – मैं बाद में जाऊँगा – आप जाओ --- वो बोलकर वहीँ गड गया ! ठीक है ---- कहकर मैं उस अंधे को इस रोशन दुनिया में छोड़कर --- आगे चल दिया --- अंधेरों की तरफ ---- अपने हालातों को टटोलता हू़आ --- बिना किसी  सहारे के !
[ सत्य घटना पर मेरी डायरी में 02/06/93 को लिखी गयी ]
अगस्त्य 

Sunday, June 3, 2012

Today is Poornima !


आज पूर्णिमा है !
चलो कुछ ऐसा पढ़ें जो की आज तक इस दुनिया की किसी किताब में कभी ना लिखा गया हो
कुछ ऐसा करें जो की पुरातन से अब तक किसी ने कभी ना किया हो
समुद्र की लहरों के साथ क्या खून नहीं लहराता होगा
मस्तिष्क की शिराओं में क्या हलचल नहीं मचाता होगा
चलो उसे महसूस करें जो सदा से पास है – भीतर रोज़ पनपता है – और मुरझा जाता है
आज उसे हम सींचें – उस पोधे को इक वृछ बनाएँ – जो भीतर ही फल देता है
आज पूर्णिमा है ! चलो कुछ उत्पात करें !

अगस्त्य