अंधा ! A Blind Men !
मैं अपने आपको लेखक समझता हूँ
- ले - ख – क – और शायद हूँ भी !
अब अपने को मैं मुंशी प्रेमचंद या निराला या रविन्द्र बाउजी के सामने तो दो इंच का
महसूस करता हूँ , पर ------- पर एक बात पक्की है की अगर मुझे अंग्रेजी ढंग से आती
होती तो ये विक्रम सेठ , शोभा डे , और रुश्दी साहेब पटरी नहीं लगा सकते मेरे शोरूम
के आगे ! ------ तो मैं अपनी इक ताज़ा पैदा
हूई रचना को लेकर बम्बई के विक्टोरिया टर्मिनल के सामने मोजूद इक प्रतिश्ठित अखबार
के महल जेसे दफ्तर में गया , गया ------- और ------ आया ! और वापसी के वक़्त सोच
मैं रहा था की मैं इतने विकृत अंदाज़ में क्युओं लिखता हूँ की सम्पादक रोनी सूरत
बना लेता है ?
आजकल अखबारों के साथ भी दिक्कत है – राजनीति ---- महाश्ब्द्पटल ----
विज्ञापन और चुटकलों को छापने के बाद जगह ही नहीं बचती – और बचे भी तो वो क्युओं
मेरे जेसे सनकी का लेख छापें ? [ वो ये छाप सकते हैं की पूजा बेदी की बिकनी डेढ़
हज़ार में नीलाम हूई , वो डायना की उडती स्कर्ट में से जोहर दिखाती टांगो का चित्र
छाप सकते हैं --- “क्या आप झगडालू हैं” ? जेसे लेख छाप सकते हैं ! ] [ नवभारत
टाइम्स में आज 02/06/93 की कुछ नाम्किनियाँ ] मेरा लेख क्युओं छापें ? ----- क्या था उसमे ?
--- सिर्फ बम्बई में हों रही मासूम बच्चियों के साथ बलत्कार जेसा चालू मसाला ! अब
पूजा बेदी की बिकनी और डायना की जांघों के आगे मेरे लेख में क्या रस है ----- ? ---
सब साले चोरकट ---- -- -
भाई साहब आप चर्चगेट जा रहे हैं ? फूटपाथ पर एक
आदमी ने मुझे रोकते हूए पूछां , मैं भी उससे मुखातिब होकर बोला – जी हाँ ! क्युओं
? – इन भाईसाहब को ----- उसने बाजू में खड़े एक काला चश्मा पहने हीरो की तरफ इशारा
करके कहा --- भी स्टेशन तक छोड़ देना ! तब मुझे एअह्सास हू़आ की वो चश्मा उसने किसी
हेरोपंती की वजह से नहीं – अंधा होने की वजह से पहना है ! मैं मन ही मन अंग्रेजों
की तरह गिल्टी फीला --- और उस अंधे का हाँथ थामा और चल दिया !
अब
वो अंधा जितना धीरे चल सकता था ---- चल रहा था --- और कह रहा था --- बड़ी दिक्कत
होती है मेरे को बिना डंडी के ! मेने सुनकर आदतन सर हिलाया – और हिलाते ही ख्याल
आया की वो मेरा सर हिलाना केसे देखेगा ---- मैं फ़ौरन बोला – हाँ – ज़रूर – ज़रूर
दिक्कत होती होगी भाई साहब ! कितनी बार तो गिर चुका हूँ मैं – वो फिर बोला , मैं
चुप रहा – क्युऊंकी गिरा तो मैं भी हूँ कई बार --- दिखने के बावजूद ! कोई डंडी
दिला दे तो परेशानी कम हों जाए ---- वो मेरे साथ रेंगता रेंगता फिर बोला – मैं फिर
चुप रहा --- और वो बोले गया !
मैं अब सोचने लगा की
केसे आदमी अपने खराब हालात को भी चंद गिने चूने भावुक लोगों से ज़ल्दी से ज़ल्दी केश
करने के चक्कर में लगा रहता है --- अब वो अंधा बिना ये देखे की में उस से भी
ज़्यादा फक्कड आदमी था – मुझे डंडी की दास्ताँ सुनाकर पांच दस झटकने के चक्कर में
था , काश उसे मालूम होता की बातोर लेखक ये धक्के खाने वाला आदमी उसे सहारा देने को
डंडी तो क्या --- दांत खुरचने को इक तीली तक दिलवाने में असमर्थ था !
अब पता नहीं केसे उस अंधे ने एकदम से मेरे हालातों को देख लिया , ------------
अच्छा भाईसाहब आप जाओ --- वो इकदम से हाँथ
छुडाकर बोला ! – क्यओं --- चर्चगेट नहीं जाओगे ? – मेने हेरान होकर उससे पूंछा ! –
नहीं – मैं बाद में जाऊँगा – आप जाओ --- वो बोलकर वहीँ गड गया ! ठीक है ---- कहकर
मैं उस अंधे को इस रोशन दुनिया में छोड़कर --- आगे चल दिया --- अंधेरों की तरफ ----
अपने हालातों को टटोलता हू़आ --- बिना किसी सहारे के !
[ सत्य घटना पर मेरी डायरी में 02/06/93 को लिखी गयी ]
अगस्त्य
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