Tuesday, February 5, 2013

Yes it is Time to Melt !


हां हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए ,

इस हिमालय से फिर कोई गंगा निकलनी चाहिए ,

उनका तो मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही है ,

शीर्ष पर बैठें हैं जो – उनकी भी तबियत बिगडनी चाहिए ,

अन्न के दानो का रोना रोते हैं जो लोग ,

खुदकुशी करने को बस ज़रा सी हिम्मत तो चाहिए ,

या तो फिर कुछ ऐसा करें की विस्फोट सा हो जाए ,

इस राजनीति से ये अंग्रेजियत निकलनी चाहिए ,

जितने का तोप गोले – बारूद खरीदा करतें हैं हम ,

अब बस करें तो सब की छप्पनभोग थाली लगनी चाहिए ,

और धार्मिकों को चाहिए की वो बस घंटी घून्घूनायें ,

राजनीति में हस्तछेप की हिमाकत नहीं करनी चाहिए ,

देश के सब बूध्हिजिवियों को डूब मरना चाहिए ,

सोचता हूँ की क्या सच में आतंकियों से नफरत करनी चाहिए ,

सब्र के जब बाँध सब टूटेंगे गर इसी तरह ,

भीड़ तो जमा होगी ही – बेशक लाठियां पड़नी चाहियें ,

देश का हर नागरिक आतंकवादी कहलायेगा इक दिन ,

या तो खादी वालों के पजामे की गाँठ ढीली पड़नी चाहिए ,

कुछ आदिवासी मिले – कह रहे थे मुस्कुराकर खुशी से ,

चाहे घास की बने पर रोटी – गोल बननी चाहिये !

अगस्त्य नारायण शुक्ल

05/02/2013

Monday, February 4, 2013

Oh ! God -- You are Really Great !

यदि धर्म मूलतः आनन्द का स्त्रोत हो तो नास्तिक होने को कोई कारण नहीं रह जाता, क्यूंकि कोई भी मनुष्य धर्म को इनकार कर सकता है - आनन्द को कैसे अस्वीकार करेगा ? वास्तव में लोग संप्रदाय को धर्म समझ लेते हैं और नास्तिक आस्तिक होने ना होने की ख़ुशफ़हमी में पड़े रहते हैं ! मेरी धर्म की परीभाषा है - आनन्द ! सिर्फ आनन्द , अकारण आनन्द , जो किसी पर निर्भर न हो , पर जेसे की श्वास लेने के आनन्द से हम ताउम्र अनभिज्ञ रहते वैसे ही अन्य कई प्रकार हैं आनंद के भी , पर जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैंठ !


“ बुतों शाबाश तुमको है तरक्की इसको कहते हैं , न तरसे थे तो पत्थर थे जो तरसे तो खुदा निकले ! “

किसने लिखा मालूम नहीं , पर क्या खूब लिखा !
अगस्त्य