समझ की बहुत बात भी नहीं। समझने का बहुत सवाल भी नहीं। जो समझने में ही उलझा रहेगा, नासमझ ही बना रहेगा।
जीवन कुछ जीने की बात है, स्वाद लेने की बात है। समझ का अर्थ ही होता है कि हम बिना स्वाद लिए समझने की चेष्टा में लगे हैं, बिना जीए समझने की चेष्टा में लगे हैं। बिना भोजन किए भूख न मिटेगी। समझने से कब किसकी भूख मिटी? और भूख मिट जाए तो समझने की चिंता कौन करता है!
आदमी ने एक बड़ी बुनियादी भूल सीख ली है—वह है, जीवन को समझ के द्वारा भरने का। जीवन कभी समझ से भरता नहीं; धोखा पैदा होता है।
प्रेम करो तो प्रेम को जानोगे। प्रार्थना करो तो प्रार्थना को जानोगे।
अहंकार की सीढ़िया थोड़ी उतरो तो निरहंकार को जानोगे।
डूबो, मिटो, तो परमात्मा का थोड़ा बोध पैदा होगा।
लेकिन तुम कहते हो, पहले हम समझेंगे। तुम कहते हो, हम पानी में उतरेंगे न, जब तक हम तैरना समझ न लें। अब तैरने को समझकर कोई पानी में उतरेगा तो कभी उतर ही न पाएगा। तैरना तो तैरकर ही समझा जाता है। इसलिए पहली बार तो बिना तैरना जाने ही पानी में उतरना जरूरी है। खतरा है। पर जो खतरा मोल लेते है वे ही समझ के मोतियों को निकाल लाते हैं। तुम बिना खतरा लिए समझने की कोशिश कर रहे हो। तुम चाहते तो सब हो कि समझ में आ जाए, हाथ न जलें। तुम दूर खड़े रहो, समझ की संपदा तुम्हारे पास आ जाए, तुम्हें कदम न उठाना पड़े।
तुम शब्दों—शब्दों से अपने को भर लेना चाहते हो—वही चूक हो रही है। इसलिए तुम प्रश्न पूछने में डरते भी हो। क्योंकि प्रश्न पूछने का अर्थ ही होता है : उत्तर की खोज में जाना होगा। उत्तर कोई मुफ्त नहीं मिलते हैं; मिलते होते, सभी को मिल गए होते। उत्तर ऐसे ही कहीं किताबों में बंद नहीं रखे हैं कि तुमने खोले और' पा लिए। उत्तर तो जीवन की कशमकश में, जीवन के संघर्ष में उत्पन्न होते हैं। उत्तर कोई रेडीमेड नहीं हैं कि तुम गए और प्राप्त कर लिए। कोई दूसरा तो तुम्हें दे ही नहीं सकता—तुम्हीं खोजोगे। दूसरे से इतना ही हो जाए कि तुम्हारे भीतर यह खयाल आ जाए कि बिना खोजे न मिलेगा—तो काफी। दूसरे से इतनी प्यास पैदा हो जाए कि खोजना पड़ेगा, अपने को दाव पर लगाना पड़ेगा—तो बस..।
बुद्ध पुरुषों से प्यास मिलती है। बुद्ध पुरुषों से उत्तर नहीं मिलते, प्रश्न करने की क्षमता मिलती है। बुद्ध पुरुषों से प्रश्नों के हल नहीं होते, प्रश्नों को हल करने के लिए जीवन को दाव पर लगाने का अभियान मिलता है।
इतना बात भर तुम्हारी समझ में आ जाए कि समझने से कुछ न होगा, तो समझ का काम पूरा हुआ। अन्यथा जब पूछने को सोचोगे तो कुछ पूछने जैसा खयाल में न आएगा, पूछने को क्या है? बुद्धि कहेगी, सब ठीक है। सब ठीक से काम मत चलाना। सब ठीक भी कुछ ठीक हुआ? सब ठीक तो बड़े बुझे मन की दशा है। कुछ भी ठीक नहीं है। सब ठीक तो तुम कहते हो तभी, जब कुछ भी ठीक नहीं होता और उसे तुम देखना भी नहीं चाहते, लीप—पोत लेते हो, ढांक लेते हो।
जब कोई तुमसे पूछता है, कैसे हो? कहते हो, सब ठीक है। कभी गौर किया, इस सब ठीक के नीचे कितना गैर—ठीक दबा है? औपचारिक है। इसलिए जब तुम पूछने को उठोगे, पाओगे, पूछने को कुछ मालूम नहीं होता, सब ठीक है। लेकिन कुछ भी ठीक नहीं है। और हजार—हजार प्रश्न तुम्हारे भीतर पल रहे हैं। स्वाभाविक है कि प्रश्न पले; प्रश्नों के बिना कौन जीवन के सागर में उतरा! स्वाभाविक है कि जिज्ञासा तुम्हारे भीतर घर बनाए, जिज्ञासा की पीड़ा जन्मे, जिज्ञासा तुम्हें विक्षिप्त बना दे कि जब तक तुम सत्य को पा न लो, संतोष न करो।
फिर से तुमसे कहूं : पूछने में तुम डरते हो, क्योंकि चलना पड़ेगा। इसे तुम भी भलीभांति जानते हो। लेकिन तुम गजब के होशियार हो अपने को धोखा देने में! इसलिए पूछते भी नहीं, प्रश्न भी भीतर खड़े हैं, मिटते भी नहीं। मिटेंगे कैसे? कौन मिटा देगा? जीवन तुम्हारा है, प्रश्न तुम्हारे हैं। उत्तर भी तुम्हारे होंगे, समाधान भी तुम्हारा होगा। कंठ तुम्हारा प्यासा है, मेरे उत्तर से क्या होगा हल! तुम्हें सरोवर खोजना पड़ेगा। ज्यादा से ज्यादा इतना कह सकता हूं इसी राह मैं भी चला था, घबड़ाना मत। कितनी ही प्यास बढ़ जाए, निराश मत होना—सरोवर है। इतनी आस्था तुम्हें दे सकता हूं।
जो उत्तर मैं तुम्हें दे रहा हूं वे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं, सिर्फ तुम्हारी कमजोर हिम्मत न हो जाए, तुम हिम्मतपस्त न हो जाओ। राह लंबी है, सरोवर दूर है; मुफ्त नहीं मिलता; बड़ा कंटकाकीर्ण मार्ग है, भटक जाने की ज्यादा संभावनाएं हैं पहुंच जाने की बजाय। करीब—करीब आ गए लोग भी भटक गए हैं; पहुंचते—पहुंचते गलत राह पकड़ ली है; पहुंच ही गए थे कि पड़ाव डाल दिया। दो कदम बाद सरोवर था कि थक गए और सोचा कि मंजिल आ गई; आंख बंद कर ली और सपने देखने लगे। इतना ही तुमसे कह सकता हूं कि सरोवर है और सरोवर को पाने का तुम्हारा जन्म—सिद्ध अधिकार है। पर खोजे बिना यह न होगा।
और खोज से इतना डर क्यों लगता है? क्योंकि खोज का अर्थ ही होता है : अनजाने रास्तों पर यात्रा करनी होगी। खोज का अर्थ ही होता है : नक्शे नहीं हैं हाथ में, नहीं तो नक्शो के सहारे चल लेते; राह पर मील के पत्थर नहीं लगे हैं, नहीं तो उनके सहारे चल लेते। खोज जटिल है इसलिए कि तुम चलते हो, तुम्हारे चलने से ही रास्ता बनता है। रास्ता पहले से तैयार नहीं है। राजपथ नहीं है जिस पर भीड़ चली जाए।
इसलिए तुमसे कहता हूं : धर्म वैयक्तिक है।
संप्रदाय तुम्हें धोखा देता है राजपथ का। हिंदू चले जा रहे हैं, मुसलमान चले जा रहे हैं, तुम भी साथ—संग हो लिए, बड़ी भीड़ जा रही है! लेकिन जो भी पहुंचा है, अकेला पहुंचा है; याद रखना, भीड़ कभी पहुंची नहीं। जो भी पहुंचा है, नितांत एकांत में पहुंचा है। जो भी पहुंचा है, इतना अकेला पहुंचा है कि खुद भी अपने साथ न था उन पहुंचने के क्षणों में। इतनी शून्य एकांत की दशा में कोई पहुंचा है कि खुद भी न था मौजूद; दूसरे की तो बात और। दूसरे की तो जगह ही न थी, अपने लिए भी जगह नहीं।
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