हां हो गई
है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए ,
इस हिमालय
से फिर कोई गंगा निकलनी चाहिए ,
उनका तो
मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही है ,
शीर्ष पर
बैठें हैं जो – उनकी भी तबियत बिगडनी चाहिए ,
अन्न के
दानो का रोना रोते हैं जो लोग ,
खुदकुशी
करने को बस ज़रा सी हिम्मत तो चाहिए ,
या तो फिर
कुछ ऐसा करें की विस्फोट सा हो जाए ,
इस
राजनीति से ये अंग्रेजियत निकलनी चाहिए ,
जितने का
तोप गोले – बारूद खरीदा करतें हैं हम ,
अब बस
करें तो सब की छप्पनभोग थाली लगनी चाहिए ,
और
धार्मिकों को चाहिए की वो बस घंटी घून्घूनायें ,
राजनीति
में हस्तछेप की हिमाकत नहीं करनी चाहिए ,
देश के सब
बूध्हिजिवियों को डूब मरना चाहिए ,
सोचता हूँ
की क्या सच में आतंकियों से नफरत करनी चाहिए ,
सब्र के
जब बाँध सब टूटेंगे गर इसी तरह ,
भीड़ तो
जमा होगी ही – बेशक लाठियां पड़नी चाहियें ,
देश का हर
नागरिक आतंकवादी कहलायेगा इक दिन ,
या तो
खादी वालों के पजामे की गाँठ ढीली पड़नी चाहिए ,
कुछ
आदिवासी मिले – कह रहे थे मुस्कुराकर खुशी से ,
चाहे घास
की बने पर रोटी – गोल बननी चाहिये !
अगस्त्य
नारायण शुक्ल
05/02/2013
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