रेत की नाव, झाग के मांझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की—भारी प्लास्टिक की कलें
मोम के चाक जो रुके न चलें
राख के खेत, धूल के खलिहान
भाप के पैरहन, धुएं के मकान
नहर जादू की, पुल दुआओं के
झुनझुने चंद योजनाओं के
सूत के चेले, मूंज के उस्ताद
तेश दफ्ती के, काच के फरिहाद
आलिम आटे के, और रवे के इमाम
और पन्नी के शायराने—कराम
ऊन के तीर, रुई की शमशीर
सदर मिट्टी का और रबर के वजीर
अपने सारे खिलौने साथ लिए
दस्ते—खाली में कायनात लिए
दो सुतूनों में बौध के रस्सी
हम खुद न जाने कब से चलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
न तो गिरते हैं न सम्हलते हैं
*ओशो*