अतीत में जो शिक्षा प्रचलित थी वह पर्याप्त नहीं है, अधूरी है, सतही है। वह सिर्फ ऐसे लोग निर्मित करती है जो रोजी-रोटी कमा सकते हैं लेकिन जीवन के लिए वह कोई अंतर्दृष्टि नहीं देती। वह न केवल अधूरी है, बल्कि घातक भी है क्योंकि वह प्रतिस्पर्धा पर आधारित है।
किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धा, गहरे में हिंसक होती है और प्रेम-रहित लोगों को पैदा करती है। उनका पूरा प्रयास होता है, जीवन में कुछ पाना है - नाम,कीर्ति, सब तरह की महत्वाकांक्षाएं। स्वभावतः, उन्हें लड़ना पड़ता है और उसके लिए संघर्षरत रहना पड़ता है। उससे उनका आनंद और उनका मैत्री-भाव खो जाता है। लगता है, जैसे हर व्यक्ति पूरे विश्व के साथ लड़ रहा है।
शिक्षा अब तक लक्ष्य की ओर उन्मुख रही है। तुम क्या सीख रहे हो यह महत्वपूर्ण नहीं है; साल, दो साल बाद जो परीक्षा होगी वह महत्वपूर्ण है। वह भविष्य को महत्वपूर्ण बनाती है-वर्तमान से अधिक महत्वपूर्ण। वह भविष्य के लिए वर्तमान की बलि चढ़ाती है। और यह तुम्हारी जीवन-शैली बन जाती है। तुम हमेशा इस क्षण को उसके लिए समर्पित करते हो, जो अभी मौजूद नहीं है। उससे जीवन में गहन रिक्तता पैदा होती है।
मेरी दृष्टि में जो कम्यून है, उसमें शिक्षा के पांच आयाम होंगे।
इससे पहले कि मैं उन पांचों आयामों की चर्चा करुँ, कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक, शिक्षा के अंग की भांति कोई भी परीक्षा नहीं होनी चाहिए। लेकिन प्रतिदिन, प्रत्येक घंटे में शिक्षक निरीक्षण करे; और पूरे वर्ष के दौरान उन्होंने जो टिप्पणी लिखी होगी उससे निर्धारित होगा कि तुम आगे बढ़ोगे या उसी कक्षा में कुछ समय तक रहोगे। न कोई अनुत्तीर्ण होगा, न कोई उत्तीर्ण होगा। फर्क इतना ही होगा कि कुछ लोगों की गति ज्यादा होगी, कुछ लोगों की थोड़ी कम होगी। असफलता का खयाल हीनता का गहरा घाव पैदा करता है, और सफल होने का खयाल भी एक अलग तरह की बीमारी पैदा करता है: श्रेष्ठता का भाव।
न कोई निकृष्ट है, न कोई श्रेष्ठ है।
व्यक्ति सिर्फ स्वयं है-अतुलनीय।
इसलिए परीक्षाओं की कोई जगह न होगी। इससे पूरा परिप्रेक्ष्य ही बदल कर भविष्य से वर्तमान में आ जाएगा। तुम इस क्षण जो ठीक से कर रहे हो वह निर्णायक होगा, साल के अंत में पूछे जाने वाले पांच सवाल नहीं। इन दो वर्षों में तुम जिन हजारों चीजों से गुजरोगे, वह हर चीज निर्णायक होगी। तो शिक्षा लक्ष्य केंद्रित नहीं होगी।
अतीत में शिक्षक अत्यंत महत्वपूर्ण था; क्योंकि उसे पता था कि वह सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो चुका है। उसने ज्ञान का संग्रह कर लिया था। लेकिन वह परिस्थिति अब बदल गई है। लेकिन समस्या यह है कि परिस्थिति बदल जाती है और उसके प्रति हमारे प्रतिसंवेदन पुराने ही रह जाते हैं। अब ज्ञान का विस्फोट इतना अधिक हो गया है, इतना विराट और इतना तेज हुआ है कि तुम किसी वैज्ञानिक विषय पर बड़ी किताब नहीं लिख सकते क्योंकि जब तक तुम्हारी किताब पूरी होगी तब तक वह तिथि बाह्य हो चुकी होगी। नये तथ्य, नये आविष्कार उसे असंगत कर देंगे। तो अब विज्ञान को लेखों पर, पत्रिकाओं पर निर्भर रहना पड़ता है, किताबों पर नहीं।
शिक्षक ने तीस साल पहले शिक्षा पाई थी। तीस सालों में सब कुछ बदल गया और वह वही दोहराता रहता है, जो उसने तीस साल पहले सीखा था। वह तिथिबाह्य हो गया है और वह अपने विद्यार्थियों को तिथिबाह्य बना रहा है। मेरी दृष्टि में शिक्षक के लिए कोई जगह नहीं है। शिक्षकों की बजाय मार्गदर्शक होंगे। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है। मार्गदर्शक तुम्हें यह बताएगा कि पुस्तकालय में इस विषय पर नवीनतम जानकारी कहां मिल सकती है।
भविष्य में कंप्यूटर अत्यधिक, क्रांतिकारी रूप से महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाला है।
उदाहरण के लिए, विद्यार्थियों को जिस तरह से शिक्षा दी जाती है वह बिलकुल ही पुरातनपंथी है। अभी भी वह स्मृति को पुष्ट करने पर निर्भर करता है। और स्मृति पर जितना बोझ डाला जाए उतनी ही स्पष्टता और बुद्धिमत्ता की संभावना कम हो जाती है। मैं इसे एक बहुत बड़ा अवसर मानता हूं कि सब तरह की जानकारी का संग्रह करने से विद्यार्थियों को मुक्ति मिल सकती है। वे अपने साथ छोटे कंप्यूटर रख सकते हैं जिनमें उनके जरूरत की सभी जानकारी होगी। उससे उनके मस्तिष्क को अधिक ध्यानपूर्ण, सुस्पष्ट और निश्चल होने में मदद मिलेगी। अभी तो उनके मस्तिष्क में व्यर्थ का कूड़ा-करकट भरा रहता है।
भविष्य में शिक्षा कंप्यूटर और टेलीविज़न पर ही केंद्रित होगी क्योंकि पढ़ा हुआ या सुना हुआ इतनी सरलता से खयाल में नहीं रहता जितना कि देखा हुआ। कान या अन्य किसी भी साधनों की अपेक्षा आंखें कहीं अधिक शक्तिशाली माध्यम हैं। और पढ़ने या सुनने में जो ऊब पैदा होती है वह भी उसमें नहीं होती। उलटे टेलीविज़न एक आनंदपूर्ण अनुभव बन जाता है। भूगोल बड़े रंगीन ढंग से पढ़ाया जा सकता है।
शिक्षक केवल एक मार्गदर्शक होगा, जो तुम्हें उचित चैनल दिखा देगा, तुम्हें कंप्यूटर का उपयोग करना सिखा देगा, और यह भी दिखा देगा कि नवीनतम किताब को कैसे खोजना। उसका काम बिलकुल ही भिन्न होगा। वह तुम्हें ज्ञान नहीं दे रहा है, वह तुम्हें समकालीन ज्ञान के प्रति सजग कर रहा है। वह केवल मार्गदर्शक है।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, मैं शिक्षा को पांच आयामों में बाँटता हूं।
पहला आयाम है सूचनात्मक, जैसे इतिहास, भूगोल और इस तरह के बहुत से विषय जिन्हें टेलीविज़न और कंप्यूटर द्वारा एक साथ पढ़ाया जा सकता है।
लेकिन इतिहास के संबंध में हमें एक आत्यंतिक मूलभूत दृष्टिकोण लेना पड़ेगा। अभी तो चंगीज खान, तैमूरलंग, नादिरशाह, एडोल्फ हिटलर इत्यादि लोगों से इतिहास बना है। ये हमारा इतिहास नहीं है, ये हमारे दुः स्वप्न हैं। आदमी, आदमी के साथ इतना क्रूर हो सकता है यह खयाल ही जुगुप्सा पैदा करता है। हमारे बच्चों के भीतर ऐसे खयालात नहीं डाले जाने चाहिए।
भविष्य में इतिहास के पन्ने केवल उन लोगों से भरे हुए होने चाहिए जिन्होंने इस ग्रह के सौंदर्य को बढ़ाने में योगदान दिया है-गौतम बुद्ध, सुक़रात, लाओत्सु, जलालुद्दीन रूमी, जे. कृष्णमूर्ति जैसे महान रहस्यवादी; वाल्ट व्हिटमन, उमर खय्याम जैसे श्रेष्ठ कवि लीयो टाल्सटाय, मौक्सिम गोर्की, फ्योदोर दोस्तोवस्की, रवींद्रनाथ टैगोर, बाशो जैसे महान साहित्यकार।
हम अपनी विरासत की विधायक भव्यता की शिक्षा दें। और जो लोग अब तक ऐतिहासिक दृष्टि से महान माने गए हैं - एडोल्फ हिटलर जैसे लोग, उनका उल्लेख केवल टिप्पणियों में हो। उनका स्थान सिर्फ टिप्पणियों में होगा या परिशिष्ट में, जिसके साथ यह साफ स्पष्टीकरण हो कि या तो वे विक्षिप्त थे, या हीनता ग्रन्थि या अन्य किसी मानसिक विकार से पीड़ित थे।
हमें आने वाली पीढ़ियों को इस बात से अवगत करा देना चाहिए कि अतीत में हमारा एक अंधेरा पहलू रहा है जो पूरे अतीत पर हावी रहा है, लेकिन अब उस पहलू के लिए कोई जगह नहीं है।
पहले आयाम में भाषाएं भी सम्मिलित हैं। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को दो भाषाएं तो सीखनी ही चाहिए: एक उसकी मातृभाषा और दूसरी अंग्रेजी, जो कि अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान की भाषा है। इन भाषाओं को टेलीविज़न के माध्यम से बिलकुल सही ढंग से सिखाया जा सकता है-बोलने का अंदाज, व्याकरण, हर चीज आदमी से अधिक सही ढंग से सिखाई जा सकती है।
हम विश्व में एक बंधुता का वातावरण तैयार कर सकते हैं। भाषा लोगों को जोड़ती है और भाषा तोड़ती भी है। इस समय अंतर्राष्ट्रीय भाषा एक भी नहीं है। इसके लिए हमारे पूर्वग्रह जिम्मेवार हैं। अंग्रेजी में पूरी क्षमता है क्योंकि विश्व भर में बहुत बड़े पैमाने पर ज्यादा लोग इसे जानते हैं।
दूसरा आयाम: वैज्ञानिक विषयों की खोज। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वास्तविकता का आधा अंग है, बाह्य वास्तविकता का। वे भी टेलीविज़न और कंप्यूटर द्वारा सिखाए जा सकते हैं, परंतु वे अधिक जटिल हैं इसलिए मानव-मार्गदर्शक की ज्यादा जरूरत होगी।
और तीसरा आयाम वह होगा जिसकी आज की शिक्षा में कमी है: जीने की कला। लोग यह माने बैठे हैं कि वे प्रेम जानते हैं। वे नहीं जानते; और जब तक वे जानने लगते हैं, बहुत देर हो चुकी होती है। प्रत्येक बच्चे को सिखाया जाए कि उसके क्रोध, घृणा, ईर्ष्या को प्रेम में कैसे रूपांतरित किया जाए।
तीसरे आयाम का एक महत्वपूर्ण अंग होगा, हास्य-व्यंग की समझ।
हमारी तथाकथित शिक्षा लोगों को उदास और गंभीर बनाती है। और अगर तुम्हारे जीवन का एक तिहाई हिस्सा विश्वविद्यालय में उदास और गंभीर होने में व्यतीत हो जाए तो वह तुम्हारे भीतर गहरा खुद जाता है, तुम हंसी की भाषा भूल जाते हो। और जो आदमी हंसी की भाषा भूल जाता है वह जीवन का बहुत कुछ भूल जाता है।
तो प्रेम, हंसी और जीवन, जीवन के आश्चर्य और रहस्यों से परिचय...वृक्षों पर चहकते हुए इन पक्षियों का संगीत अनसुना न रह जाए। इन वृक्षों, फूलों और सितारों का तुम्हारे हृदय के साथ कोई नाता जुड़ना चाहिए। ये सूर्योदय और सूर्यास्त महज बाह्य घटनाएं नहीं होनी चाहिए,वे कुछ आंतरिक भी हों। जीवन के प्रति आदर, तीसरे आयाम की बुनियाद होनी चाहिए। लोग जीवन के प्रति इतने अनादर से भरे हैं।
चौथा आयाम होना चाहिए, कला और सृजनात्मकता: चित्रकला, संगीत, हस्तकला, कविता, पत्थर तोड़ने का काम-जो भी सृजनात्मक है, वह सब।
सृजनात्मकता के सब क्षेत्रों से उन्हें अवगत कराना चाहिए। फिर विद्यार्थी चुनाव कर सकते हैं। सिर्फ कुछ ही बातें आवश्यक होनी चाहिए-जैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा का ज्ञान आवश्यक होना चाहिए, तुम्हारी आजीविका कमाने की क्षमता आवश्यक होनी चाहिए, कोई भी एक सृजनात्मक कला आवश्यक होनी चाहिए। सृजनात्मक कलाओं के पूरे इंद्रधनुष में से तुम चुन सकते हो। क्योंकि जब तक आदमी सृजन की कला नहीं जानता, तब तक वह अस्तित्व का अंश नहीं बनता, जो कि सतत सृजन कर रहा है। सृजनात्मक होने से आदमी दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है। सृजनात्मकता एकमात्र प्रार्थना है।
और पाँचवाँ आयाम होगा, मरने की कला।
इस पाँचवें आयाम में ध्यान की सब विधियां होंगी ताकि तुम जान सको कि मृत्यु होती ही नहीं; ताकि तुम अपने भीतर के शाश्वत जीवन से परिचित हो जाओ। इसे अत्यंत आवश्यक किया जाना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति को मरना है, इससे कोई भी बच नहीं सकता। और ध्यान के विशाल छाते के नीचे तुम्हें झेन, ताओ, योग, हसीद धर्म-सभी तरह की संभावनाएं जो आज तक रही है, उनसे परिचित कराया जा सकता है। और आज तक शिक्षा ने इसकी फिक्र नहीं की है।
नये कम्यून में पूरी शिक्षा होगी, संपूर्ण शिक्षा होगी।
मैं खुद एक प्राध्यापक रहा हूं। और मैंने विश्वविद्यालय से यह कह कर इस्तीफा दिया कि यह शिक्षा नहीं है, यह निपट मूढ़ता है। तुम कुछ भी अर्थपूर्ण नहीं सिखा रहे हो।
लेकिन सारे संसार में यही निरर्थक शिक्षा प्रचलित है। फिर वह सोवियत संघ हो कि अमरीका हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; किसी ने अधिक संपूर्ण, अधिक समग्र शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया है। इस अर्थ में करीब-करीब हर व्यक्ति जीवन के बृहत्तर क्षेत्र में अशिक्षित है। कुछ लोग ज्यादा अशिक्षित हैं, कुछ लोग कम; लेकिन हर कोई अशिक्षित है। सुशिक्षित आदमी मिलना असंभव है क्योंकि संपूर्ण शिक्षा नाम की कोई चीज ही नहीं है।
From my Master's Mouth....
Experienced Ignorant...